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निर्मला
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नहीं हूँ। आखिर रोटियाँ ही तो खिलाती हो या और कुछ? ऐसी रोटियाँ जहाँ मेहनत करूँगा, वहीं मिल जायँगी। जब मजूरी ही करनी है, तो आपकी न करूँगा। जाइए, मेरे लिए खाना न बनाइएगा।

निर्मला अवाक् रह गई। लड़के को आज यह क्या हो गया? और दिन तो चुपके से जाकर काम कर लाता था, आज क्यों त्योरियाँ बदल रहा है? अब भी उसको यह न सूझी कि सियाराम को दो-चार पैसे कुछ खाने को दे दे। उसका स्वभाव इतना कृपण हो गया था। बोली―घर का काम करना तो मजूरी नहीं कहलाती। इसी तरह मैं भी कह कि दूँँ मैं खाना नहीं पकाती; तुम्हारे बाबू जी कह दें―मैं कचहरी नहीं जाता, तो क्या हो; बताओ? नहीं जाना चाहते मत जाओ, भुङ्गी से मँगा लूँगी। मैं क्या जानती थी कि तुम्हें बाज़ार जाना बुरा लगता है, नहीं तो बला से पैसे की चीज़ धेले की आती, तुम्हें न भेजती। लो, आज से कान पकड़ती हूँ।

सियाराम दिल में कुछ लज्जित तो हुआ; पर बाज़ार न गया। उसका ध्यान बाबा जी की ओर लगा हुआ था। अपने सारे दुखों का अन्त और जीवन की सारी आशाएँ उसे अब बाबा जी के आशीर्वाद में मालूम होती थीं। उन्हीं की शरण जाकर उसका यह आधारित जीवन सार्थक होगा। सूर्यास्त के समय वह अधीर हो गया। सारा बाज़ार छान मारा; लेकिन बाबा जी का कहीं पता न मिला। दिन भर का भूखा-प्यासा, वह अबोध बालक दुखते हुए दिल को हाथों से दबाए, आशा और भय की मूर्ति बना हुआ