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निर्मला
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है ही नहीं। बारातियों के सेवा-सत्कार का काफी सामान हो ही चुका है, विलम्ब करने में हानि ही हानि है। अतएव महाशय भालचन्द्र को शोक-सूचना के साथ यह सन्देशा भी भेज दिया गया! कल्याणी ने अपने पत्र में लिखा--इस अनाथिनी पर दया कीजिए;और डूबती हुई नाव को पार लगाइए! स्वामी जी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं; किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मञ्जूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ है। कन्या आप की हो चुकी। मैं आप लोगों की सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूँ; लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा कीजिएगा। मुझे विश्वास है कि आप स्वयं इस अनाथिनी की निन्दा न होने देंगे; आदि।

कल्याणी ने यह पत्र डाक से न भेजा; बल्कि पुरोहित जी से कहा--आपको कष्ट तो होगा; पर आप स्वयं जाकर यह पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहिएगा कि जितने कम आदमी आएँ, उतना ही अच्छा। यहाँ कोई प्रबन्ध करने वाला नहीं है। पुरोहित मोटेराम यह सन्देशा लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुँचे।

सन्ध्या का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखाने के सामने आराम कुर्सी पर नङ्ग-धिडङ्ग लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल, ऊँचे क़द के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था कि काला देव है, या कोई हबशी अफ्रीका से पकड़ कर आया है। सिर से पैर तक एक ही रङ्ग था--काला! चेहरा इतना स्याह था कि