पृष्ठ:निर्मला.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३
तीसरा परिच्छेद
 


निष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपने प्राणपति के प्रेम से वञ्चित हो गई। अगर मैं ने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो वह कदापि रात को घर से बाहर न जाते। न जाने उनके मन में क्या-क्या विचार आए हों? उनके मनोभावों की कल्पना करके; और अपने अपराध को बढ़ा-बढ़ा कर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी। जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती। इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रार मोल लेनी पड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहाँ आठों पहर कचहरी सी लगी रहती थी, वहाँ अब खाक उड़ती थी। वह मेला ही उठ गया। जब खिलाने वाला ही न रहा, तो खाने वाले कैसे पड़े रहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर सभी भाजे-भतीजे विदा हो गए। जिनको दावा था कि हम पानी की जगह खून वहाने वालों में हैं, वह ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिर कर भी न देखा। दुनिया ही दूसरी हो गई! जिन बच्चों को देख कर प्यार करने को जी चाहता था, उनके चेहरे पर अब मक्खियाँ भिनभिनाती थीं! न जाने वह कान्ति कहाँ चली गई?

शोक का आवेग कम हुआ, तो निर्मला के विवाह की समस्या उपस्थित हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई कि; विवाह इस साल रोक दिया जाय, लेकिन कल्याणी ने कही--तैयारियों के वाद विवाह को रोक देने से सब किया-धरा मिट्टी में मिल जायगा; और दूसरे साल फिर यही तैयारियाँ करनी पड़ेंगी, जिसकी कोई आशा न थी; विवाह कर ही देना अच्छा है। कुछ लेना-देना तो