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निर्मला
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रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरदीन, झगड़? कोई नहीं बोलता; सब मर गए। दर्जन भर आदमी हैं; पर मौके पर एक की भी सूरत नहीं नज़र आती, न जाने सब कहाँ गायब हो जाते हैं। आप के वास्ते कुर्सी लाओ।

बाबू साहब ने ये पाँचों नाम कई बार दुहराए; लेकिन यहान हुआ कि पङ्खा मलने वाले दोनों आदमियों में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते। तीन-चार मिनिट के बाद एक काना आदमी खाँसता हुआ आकर बोला--सरकार, इतना की नौकरी हमार कीन न होई। कहाँ तलक उधार-बाढ़ी ले-ले खाई। माँगत-माँगत थेथर होय गएन।

भाल०--मत बको, जाकर कुर्सी लाओ। जब कोई काम करने को कहा गया, तो रोने लगता है। कहिए पण्डित जी, वहाँ सब कुशल तो है?

मोटेराम--क्या कुशल कहूँ बाबू जी, अब कुशल कहाँ? सारा घर मिट्टी में मिल गया!

इतने में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकर रख दिया और बोला--कुर्सी मेच हमार उठाए नाहीं उठत है।

पण्डित जी शरमाते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाय; और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया।

भाल०--अब और कैसे मिट्टी में मिलेगा। इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी। बाबू उदयभानुलाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था। क्या दिल था, क्या हिम्मत थी,