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पृष्ठ:निर्मला.djvu/३०

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तीसरा परिच्छेद
 


( आँखें पोंछकर ) मेरा तो जैसा दाहिना हाथ ही कट गया। विश्वास मानिए, जब से यह खवर सुनी है, ऑखों में अँधेरा सा छा गया है। खाने बैठता हूँ, तो कौर मुँह में नहीं जाता। उनकी सूरत आँखों के सामने खड़ी रहती है। मुँह जूठा करके उठ आता हूँ। किसी काम में दिल ही नहीं लगता। भाई के मरने का रञ्ज भी इससे कम ही होता। आदमी नहीं, हीरा था!

मोटे०--सरकार, नगर में अव ऐसा कोई रईस ही नहीं रहा।

भाल०--मैं खूब जानता हूँ पण्डित जी, आप मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाख-दो लाख में एक होता है। जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो ही तीन वार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया; और मरते दम तक रहूँगा। आप समधिन साहब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रूज है।

मोटे०--आप से ऐसी ही आशा थी। आप जैसे सज्जनो के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन विना दहेज के पुत्र का विवाह करता है।

भाल०--महाराज, दहेज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरुषों स नहीं की जाती। उनसे तो सम्बन्ध हो जाना ही लाख रुपये के बरावर है। मैं इसी को अपना अहोभाग्य समझता हूँ। हा! कितनी उदार आत्मा थी? रुपये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बरावर भी परवाह नहीं की। बुरा रिवाज है, बेहद