पृष्ठ:निर्मला.djvu/२९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
२९२
 


द्वेष का लेश भी नहीं रहा। कोई काम करती हों, निर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं। घण्टों उसके पास कथा-पुराण सुनाया करती हैं। कोई ऐसी चीज़ पकाना चाहती हैं,जिसे निर्मला रुचि से खाए। निर्मला को कभी हँसते देख लेती हैं,तो निहाल हो जाती हैं;और बच्ची को तो अपने गले का हार बनाए रहती हैं। उसी की नींद सोती हैं,उसी की नींद जागती हैं। वही बालिका अब उनके जीवन का आधार है।

रुक्मिणी ने जरा देर बाद कहा-बहू,तुम इतनी निराश क्यों होती हो,भगवान् चाहेंगे तो तुम दो-चार दिन में अच्छी हो जाओगी। मेरे साथ आज वैद्य जी के पास चलो। बड़े सज्जन हैं।

निर्मला-दीदी जी,अब मुझे किसी वैद्य-हकीम की दवा फायदा न करेगी। आप मेरी चिन्ता न करें। बच्ची को आपकी गोद में छोड़े जाती हूँ। अगर जीती-जागती बचे,तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजिएगा। मैं तो इसके लिए अपने जीवन में कुछ न कर सकी,केवल जन्म देने भर की अपराधिनी हूँ। चाहे कॉरी रखिएगा,चाहे विष देकर मार डालिएगा;पर कुपात्र के गले न मढ़िएगा,इतनी ही आपसे मेरी विनय है। मैं ने आपकी कुछ सेवा न की, इसका बड़ा दुख हो रहा है। मुझ अभागिनी से किसी को सुख नहीं मिला। जिस पर मेरी छाया भी पड़ गई, उसका सर्वनाश हो गया। अगर स्वामी जी कभी घर आवें, तो उनसे कहिएगा कि उस करम-जली के अपराध क्षमा कर दें।

रुक्मिणी रोती हुई बोली-बहू,तुम्हारा कोई अपराध नहीं