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सत्ताईसवाँ परिच्छेद
 

ईश्वर से कहती हूँ,तुम्हारी ओर से मेरे मन में जरा भी मैल नहीं है। हाँ,मैं ने सदैव तुम्हारे साथ कपट किया। इसका मुझे मरते दम तक दुख रहेगा।

निर्मला ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा-दीदी जी,कहने की बात नहीं;पर बिना कहे नहीं रहा जाता। स्वामी जी ने हमेशा मुझे अविश्वास की दृष्टि देखा;लेकिन मैंने कभी मन में भी उनकी उपेक्षा नहीं की। जो होनाथा,वह तो हो ही चुका;अधर्म करके अपना परलोक क्यों बिगाड़ती। पूर्व-जन्म में न जाने कौन से पाप किए थे,जिनका यह प्रायश्चित्त करना पड़ा। इस जन्म में काँटे बोती,तो कौन गति होती?

निर्मला की साँस बड़े वेग से चलने लगी। फिर खाट पर लेट गई; और बच्ची की ओर एक ऐसी दृष्टि से देखा,जो उसके जीवन की सम्पूर्ण विपत्कथा की वृहद आलोचना थी। वाणी में इतनी सामर्थ कहाँ!

तीन दिन तक निर्मला की आँखों से आँसुओं की धारा बहती रही । वह न किसी से बोलती थी,न किसी की ओर देखती थी; और न किसी की कुछ सुनती थी। बस,रोये चली जाती थी। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है?

चौथे दिन सन्ध्या समय वह विपत्ति-कथा समाप्त हो गई। उसी समय जब पशु-पक्षी अपने-अपने बसेरे को लौट रहे थे,निर्मला का प्राण-पक्षी भी,दिन भर शिकारियों के निशानों,शिकारी चिड़ियों के पञ्जों और वायु के प्रचण्ड झोकों से आहत