पृष्ठ:निर्मला.djvu/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला ३०

हलक से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है; लेकिन जब ईश्वर को मञ्जूर ही नहीं है तो मेरा क्या बस है ? यह मृत्यु एक प्रकार की अमङ्गलसूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है। यह किसी आने वाली मुसीबत की आकाशवाणी है । विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है, यह विवाह मङ्गलमय न होगा। ऐसी दशा में आप ही सोचिए, यह संयोग कहाँ तक उचित है । आप तो विद्वान् आदमी हैं। सोचिए, जिस काम का आरम्भ ही अमङ्गल से हो, उसका अन्त मङ्गलमय हो सकता है ? नहीं, जान-बूझ कर मक्खी नहीं निगली जाती । समधिन साहिबा से समझा कर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञा-पालन करने को तैयार हूँ; लेकिन इसका परिणाम अच्छा न होगा। स्वार्थ के वश होकर मैं अपने परम मित्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता। •

इस तर्क ने पण्डित जी को निरन्तर कर दिया। वादी ने वह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया था; और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जवाव सोच ही रहे थे कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया। अरे ! तुम सब फिर गायब हो गए; मगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरदीन, रामगुलाम ! एक भी नहीं बोलता । सबके सब मर गए । पण्डित जी के वास्ते पानी-वानी की भी फिक्र है ? न जाने इन सबों को कोई कहाँ तक समझाए । अक्ल छू तक नहीं गई।