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निर्मला
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कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गए; और स्त्री से बोले--वहाँ से एक पण्डित जी आए हैं। यह खत लाए हैं, जरा पढ़ो तो।

पत्नी जी का नाम रँगीलीबाई था। गोरे रङ्ग की प्रसन्नमुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे बिदा हो रहे थे; पर किसी प्रेमी मित्र की भाँति मचल मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था।

रँगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं। बोलीं--कह दिया न कि हमें वहाँ ब्याह करना मञ्जूर नहीं?

भाल०--हाँ, कह तो दिया; पर मारे सङ्कोच के मुँह से शब्द न निकलता था। भूठ-मूठ का हीला करना पड़ा।

रँगीली--साफ बात कहने में सङ्कोच क्या। हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नक़द मिल रहे हैं, तो वहाँ क्यों न करूँ? उनकी लड़की कोई सोने की थोड़ी ही है। वकील साहब जीते होते, तो शरमाते-शरमाते भी पन्द्रह-बीस हजार दे मरते। अब वहाँ क्या रक्खा है?

भाल०--एक दफा ज़बान देकर निकल जाना अच्छी बात नहीं। कोई मुँह पर कुछ न कहे; पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती। मगर तुम्हारे ज़िद से मजबूर हूँ।

रँगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगी। हिन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिलकुल नथा, और यद्यपि रँगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हों; पर खत-वत