पढ़ लेती थीं। पहली ही पाँती पढ़ कर उनकी ऑखें सजल हो गई; और पत्र समाप्त हुआ तो उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। एक-एक शब्द करुणा के रस में डूबा हुआ था। एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी। रंगीलीवाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी--जो एक ही आँच से पिघल जाता है। कल्याणी के करुणोत्पादक शब्दों ने उसके स्वार्थ-मण्डित हृदय को पिघला दिया। रुँधे हुए कण्ठ से बोली--अभी ब्राह्मण बैठा है न?
भालचन्द्र पत्नी जी के आँसुओं को देख-देख कर सूखे जाते थे। अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि मैंने नाहक़ यह खत इसे दिखाया। इसकी ज़रूरत ही क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी न हुई थी। सन्दिग्ध भाव से बोले--शायद वैठा हो, मैं ने तो जाने को कह दिया था। रॅगीली ने खिड़की से झाँक कर देखा। पण्डित मोटेराम जी वगुले की तरह ध्यान लगाए बाज़ार के रास्ते की ओर ताक रहे थे। लालसा से व्यग्र होकर कभी यह पहलू बदलते कभी वह पहलू। "एक पाने की मिठाई" ने आशा की कमर तो पहले ही तोड़ दी थी। उसमें भी यह विलम्ब दारुण दशा थी। उन्हें बैठे देख कर रँगीलीवाई हे ली--है; है, अभी है, जाकर कह दो; हम विवाह करेंगे, जरूर करेंगे। बेचारी बड़ी मुसीवत में है।
भाल०--तुम कभी-कभी बच्चों की सी बातें करने लगती हो। अभी उसे कह आया हूँ कि मुझे विवाह करना मञ्जूर नहीं। एक लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधनी पड़ी। अब जाकर यह सन्देशा कहूँगा,