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तीसरा परिच्छेद
 


कहती, तो तुम्हारा सङ्कोच उचित होता। नहीं करने के बाद हाँ करने में तो और अपना वड़प्पन है।

भाल०--तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही मालूम होता है। फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैने वकीलाइन के विषय में जो बात कही थी, वह झूठी थी। क्या यह पत्र देख कर? तुम जैसे खुद सरल हो, वैसे ही दूसरों को भी सरल समझती हो।

रँगीली--इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती। बनावट की बात दिल में चुभती नहीं। उसमें बनावट की गन्ध अवश्य रहती है।

भाल०--बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिलकुल फीकी मालूम होती है। यह किस्से-कहानियाँ लिखने वाले, जिनका किताबें पढ़-पढ़कर तुम घण्टों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते हैं? सरासर झूठ का तूमार बॉधते हैं, यह भी एक कला है।

रँगीली--क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो, दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूँ, तो तुम समझते हो इसे चकमा दिया; पर मै तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूँ। तुम अपना ऐब मेरे सिर मँढ़कर खुद वेदाग बनना चाहते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूँ। जब वकील साहब जीते थे, तो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत ही क्या है, वह खुद ही जितना उचित समझेगे दे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और