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पृष्ठ:निर्मला.djvu/३७

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निर्मला
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तो वह अपने दिल में क्या कहेगा, जरा सोचो तो। यह शादी-विवाह का मामला है। लड़कों का खेल नहीं है कि अभी एक बात तय की; और अभी पलट गए। भले आदमी की बात न हुई, दिल्लगी हुई!

रँगीली--अच्छा तुम अपने मुँह से न कहो, उस ब्राह्मण को मेरे पास भेज दो। मैं इस तरह समझा दूँगी कि तुम्हारी बात भी रह जाय, और मेरी भी। इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है!

भाल०--तुम अपने सिवा सारी दुनिया को नादान समझती हो। तुम कहो या मैं कहूँ, बात एक ही है। जो बात तय हो गई, वह हो गई; अब मैं उसे फिर नहीं उठाना चाहता। तुम्हीं तो बार-बार कहती थीं कि मैं वहाँ न करूँगी। तुम्हारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पड़ी। अब तुम फिर रङ्ग बदलती हो। यह तो मेरी छाती पर मूंग दलना है । आखिर तुम्हें कुछ तो मेरे मान-अपमान का विचार करना चाहिए।

रँगीली--तो मुझे क्या मालूम था कि विधवा की दशा इतनी हीन हो गई है। तुम्हीं ने तो कहा था कि उसने पति की सारी सम्पत्ति छिपा रक्खी है और अपनी गरीबी का ढोंग रच कर काम निकालना चाहती है। एक ही छटी हुई औरत है। तुमने जो कहा, वह मैंने मान लिया। भलाई करके बुराई करने में तो लज्जा और सङ्कोच है। बुरा करके भलाई करने में कोई सङ्कोच नहीं। अगर तुम हाँ कर आए होते; और मैं नहीं करने को