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तीसरा परिच्छेद
 

रॅगीली--उतना ही, जितना कोई भलामानस चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है।

भाल०--खैर, मैं झेंपा सहीः पर शादी वहाँ न होगी।

रँगीली--मेरी वला से, जहाँ चाहो करो। क्यों, भुवन से एक वार क्यों नहीं पूछ लेते?

भाल०--अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा।

रँगीली--जरा भी इशारा न करना!

भाल०--अजी मैं उसकी तरफ़ ताड़्गा भी नहीं।

संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुँचा। ऐसे सुन्दर, सुडौल, वलिष्ट युवक कॉलेजो में बहुत कम देखने में आते हैं। विलकुल माँ को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रङ्ग था, वही पतले-पतले गुलाव की पत्ती के से ओंठ, वहीं चौड़ा माथा, वही-बड़ी-बड़ी आँखें, डील-डौल बाप का था। ऊँचा कोट, ब्रीचेज़, टाई, बूट, हैट उस पर खूब खिल रहे थे। हाथ में एक हॉकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गुरूर था, आँखों में आत्म-गौरव! रँगीली ने कहा--आज बड़ी देर लगाई तुमने! यह देखो, तुम्हारी ससुराल से यह खत आया है। तुम्हारी सास ने लिखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सवेरा है। तुम्हें वहाँ शादी करनी मञ्जूर है या नहीं?

भुवन--करनी तो चाहिए अम्माँ, पर मैं करूँगा नहीं!

रँगीली--क्यों?

भुवन--कहीं ऐसी शादी करवाइए कि खूब रुपये मिलें। और सही, एक लाख का तो डौल हो। वहाँ अब क्या रक्खा