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चौथा परिच्छेद
 

मोटे०--मुझे तो दो वर पसन्द हैं। एक वह जो रेलवई में है, और दूसरा यह जो छोपेखाने में काम करता है।

कल्याणी--मगर पहले के तो खानदान में आप दोप बताते हैं।

मोटे०--हाँ, यह दोप तो है। तो छापेखाने वाले ही को रहने दीजिए।

कल्याणी--यहाँ एक हज़ार देने को कहाँ से आएगा? एक हजार तो आप का अनुमान है, शायद वह और भी मुँह फैलाए। आप तो घर की दशा देख ही रहे हैं, भोजन मिलता जाय, यही गनीमत है। रुपये कहाँ से आएँगे। जमींदार साहब चार हजार सुनाते हैं, डाक वाबू भी दो हजार का सवाल करते हैं। इनको जाने दीजिए। बस, वकील साहव ही बच रहते हैं; पैतीस साल की उम्र भी कुछ ऐसी ज्यादा नहीं, इन्हीं को क्यों न रखिए।

मोटेराम--आप खूब सोच-विचार लो, मैं तो आप की मर्जी का तावेदार हूँ। जहाँ कहिएगा, वहाँ जाकर टीका कर आऊँगा। मगर हज़ार डेढ़-हजार का मुँह न देखिए, छापेखाने वाला लड़का रत्न है। उसके साथ कन्या का जीवन सफल हो जावेगा। जैसी यह रूप और गुण की पूरी है, वैसा ही लड़का भी सुन्दर और सुशील है।

कल्याणी-'पसन्द तो मुझे भी यही है; महाराज! पर रुपये किसके घरसे आएँ? कौन देने वाला है? है कोई ऐसा दान? खाने