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निर्मला ५६


वही घर की मालिकिन थीं। उनका नाम था रुक्मिणी; और अवस्था पचास से ऊपर थी। ससुराल में कोई न था। स्थायी रीति से यहीं रहती थीं।

तोताराम दम्पति-विज्ञान में कुशल थे। निर्मला को प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक कमी थी, उसे वह उपहारों से पूरी करनी चाहते थे। यद्यपि बहुत ही मितव्ययी पुरुष थे; पर निर्मला के लिए कोई न कोई तोहफा रोज़ लाया करते। मौक़े पर धन की परवाह न करते थे। खुद कभी नाश्ता न करते थे, लड़के के लिए थोड़ा-थोड़ा दूध आता था; पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे, मिठाइयाँ-किसी चीज़ की कमी न थी। अपनी जिन्दगी में कभी सैर-तमाशे देखने न गए थे; पर अब छुट्टियों में निर्मला को सिनेमा, सरकस, थियेटर दिखाने ले जाते। अपने बहुमूल्य समय का थोड़ा सा हिस्सा उसके साथ बैठ कर ग्रामोफ़ोन बजाने में भी व्यतीत किया करते थे।

लेकिन निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हँसने-बोलने में सङ्को्च होता था। इसका कदाचित् यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर झुका कर, देह चुरा कर, निकलती थी; अब उसकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं, सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी!

वकील साहब को उनके दम्पति-विज्ञान ने सिखाया था का