बार उसी बात से जल जाती थीं। अगर निर्मला अपने कमरे में वैठी रहती, तो कहतीं न जाने कहाँ की मनहूसिन है, अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती, तो छाती पीटने लगतीं। लाज है न शरम निगोड़ी ने हया भून खाई; अब क्या ? कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी। जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये-पैसे देने शुरू किए, रुक्मिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गई थी। उसे मालूम होता था कि अब प्रलय होने में बहुत-थोड़ी कसर रह गई है। लड़कों को बार-बार पैसों की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थी, उन्हें वहला दिया करती थी। अब सीधे निर्मला के पास भेज देती। निर्मला को लड़कों का चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इन्कार कर देती। रुक्मिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता-अब तो मालिकिन हुई हैं, लड़के काहे को जिएंगे। बिन माँ के बच्चे को कौन पूछे ?रुपयों की मिठाइयाँ खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगरं चिढ़ कर किसी दिन विना कुछ पूछे-गुछे पैसे दे देती, तो देवी जी उसकी दूसरी हो आलोचना करतीं इन्हें क्या, लड़के मरें या जिएं, इनकी वला से; माँ के विना कौन समझावे कि बेटा बहुत मिठाइयाँ मत खाओ ? आईनाई तो मेरे सिर जायगी, उन्हें क्या ! यहीं तक होता तो निर्मला शायद जप्त कर जाती; पर देवी जी खुफिया पुलीस के सिपाही की भाँति निर्मला का पीछा करती रहती थीं । अगर वह कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य किसी पर निगाह डाल रही होगी;
पृष्ठ:निर्मला.djvu/६२
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५९
पांँचवांँ परिच्छेद