पृष्ठ:निर्मला.djvu/६३

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निर्मला ६०

महरी से बात करती है, तो अवश्य ही उनकी निन्दा करती होगी; बाजार से कुछ मँगवाती है, तो अवश्य कोई विलास-वस्तु होगी। वह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती, छिप-छिप कर उसकी बातें सुना करतीं। निर्मला उनकी दोधारी तलवार से काँपती रहती थी। यहाँ तक कि उसने एक दिन पति से कहा-आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ी रहती हैं?

तोताराम ने तेज़ होकर कहा-क्या तुम्हें कुछ कहा है क्या?

रोज ही कहती हैं। बात मुँह से निकलनी मुश्किल है। अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालिकिन क्यों बनी हुई है, तो आप उन्हीं को रुपए-पैसे दीजिए, मुझे न चाहिए; वही मालिकिन बनी रहें। मैं तो केवल इतना चाहती हूँ कि कोई मुझे ताने-मेहने न दिया करे।

यह कहते-कहते निर्मला की आँखों से आँसू बहने लगे। तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत ही अच्छा मौका मिला। बोले-मैं आज ही उनकी खबर लूँगा। साफ कह दूंगा,अगर मुँह बन्द करके रहना है, तो रहो; नहीं तो अपनी राह लो। इस घर की स्वामिनी वह नहीं हैं, तुम हो। वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं। अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिकत करती हैं, तो उनके यहाँ रहने की जरूरत ही नहीं। मैंने तो सोचा था विधवा हैं, अनाथ हैं, पावभर आटा खायँगी; पड़ी रहेंगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं, तो यह तो अपनी बहिन ही हैं। लड़कों