सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
८०
 

प्रस्फुटित होती रहती थीं। सपनि-सुलभ ईर्षा अभी तक उसके मन में उदय नहीं हुई थी, लेकिन पति के प्रसन्न होने के बदले नाक-भौं सिकोड़ने का आशय न समझ कर बोली-मैं क्या जानूँ उनसे क्यों नहीं माँगते। मेरे पास आते हैं,तो दुतकार नहीं देती। अगर ऐसा करूँ,तो यही होगा कि यह तो लड़कों को देख कर जलती है।

मुन्शी जी ने इसका कुछ जवाब न दिया लेकिन आज उन्होंने मुवक्किलों से बातें नहीं की, सीधे मन्साराम के पास गए और उसका इम्तहान लेने लगे। वह जीवन में पहला ही अवसर था कि उन्होंने मन्साराम और किसी लड़के की शिक्षोन्नति के विषय में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो।उन्हें अपने काम से सिर उठाने की फुरसत ही न मिलती थी । उन्हें उन विषयों को पढ़े हुए चालीस वर्ष के लगभग हो गए थे। तब से उनकी ओर आँख तक न उठाई थी। वह कानूनी पुस्तकों और पत्रों के सिवा और कुछ पढ़ते ही न थे,इसका समय ही न मिलता था;पर आज उन्हीं विषयों में वह मन्साराम। की परीक्षा लेने लगे।मन्साराम जहीन था;और इसके साथ मेहनती भी था। खेल में बी० टीम का कैप्टेन होने पर भी वह क्लास में प्रथम रहता था। जिस पाठ को एक बार देख लेता,पत्थर की'लकीर हो जाती थी। मुन्शी जी को उतावली में ऐसे मार्मिक प्रश्न तो सूझ ही न,जिनके उत्तर देने में एक चतुर लड़के को भी कुछ सोचना पड़ता; और ऊपरी प्रश्नों को मन्साराम ने चुटकियों में उड़ा दिया। कोई सिपाही अपने शत्रु पर वार खाली जाते देख कर जैसे झल्ला-झल्ला कर और भी तेजी से वार करता है,उसी भाँतिमन्साराम