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चीज पकाती, पर मुंशीजी दो-चार कौर से अधिक न खा सकते। ऐसा जान पड़ता कि कौर मुँह से निकला आता है! मंसाराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था। जहाँ उनकी आशाओं का दीपक जलता रहता था, वहाँ अब अंधकार छाया हुआ था। उनके दो पुत्र अब भी थे, लेकिन दूध देती हुई गाय मर गई तो बछिया का क्या भरोसा? जब फूलने-फलनेवाला वृक्ष गिर पड़ा, नन्हे-नन्हे पौधों से क्या आशा? यों ता जवान-बूढ़े सभी मरते हैं, लेकिन दुःख इस बात का था कि उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली। जिस दम बात याद आ जाती तो ऐसा मालूम होता था कि उनकी छाती फट जाएगी—मानो हृदय बाहर निकल पड़ेगा।

निर्मला को पति से सच्ची सहानुभूति थी। जहाँ तक हो सकता था, वह उनको प्रसन्न रखने की फिक्र रखती थी और भूलकर भी पिछली बातें जबान पर न लाती थी। मुंशीजी उससे मंसाराम की कोई चर्चा करते शरमाते थे। उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती कि एक बार निर्मला से अपने मन के सारे भाव खोलकर कह दें, लेकिन लज्जा लेती थी। इस भाँति उन्हें सांत्वना भी न मिलती थी, जो अपनी व्यथा कह डालने से, दूसरों को अपने गम में शरीक कर लेने से प्राप्त होती है। मवाद बाहर न निकलकर अंदर-ही-अंदर अपना विष फैलाता जाता था, दिन-दिन देह घुलती जाती थी।

इधर कुछ दिनों से मुंशीजी और उन डॉक्टर साहब में, जिन्होंने मंसाराम की दवा की थी, याराना हो गया था, बेचारे कभी-कभी आकर मुंशीजी को समझाया करते, कभी-कभी अपने साथ हवा खिलाने के लिए खींच ले जाते। उनकी स्त्री भी दो-चार बार निर्मला से मिलने आई थीं। निर्मला भी कई बार उनके घर गई थी, मगर वहाँ से जब लौटती तो कई दिन तक उदास रहती। उस दंपती का सुखमय जीवन देखकर उसे अपनी दशा पर दुःख हुए बिना न रहता था। डॉक्टर साहब को कुल दो सौ रुपए मिलते थे, पर इतने में ही दोनों आनंद से जीवन व्यतीत करते थे। घर में केवल एक महरी थी, गृहस्थी का बहुत सा काम स्त्री को अपने ही हाथों करना पड़ता था, गहने भी उसकी देह पर बहुत कम थे, पर उन दोनों में वह प्रेम था, जो धन की तृण के बराबर परवाह नहीं करता। पुरुष को देखकर स्त्री को चेहरा खिल उठता था। स्त्री को देखकर पुरुष निहाल हो जाता था। निर्मला के घर में धन इससे कहीं अधिक था, आभूषणों से उनकी देह फटी पड़ती थी, घर का कोई काम उसे अपने हाथ से न करना पड़ता था, पर निर्मला संपन्न होने पर भी अधिक दुःखी थी और सुधा विपन्न होने पर भी सुखी। सुधा के पास कोई ऐसी वस्तु थी, जो निर्मला के पास न थी, जिसके सामने उसे अपना वैभव तुच्छ जान पड़ता था, यहाँ तक कि वह सुधा के घर गहने पहनकर जाते शरमाती थी।

एक दिन निर्मला डॉक्टर साहब के घर आई तो उसे बहुत उदास देखकर सुधा ने पूछा-बहन, आज बहुत उदास हो, वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है, न?

निर्मला-क्या कहूँ, सुधा? उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है, कुछ कहते नहीं बनता। न जाने ईश्वर को क्या मंजूर है?

सुधा-हमारे बाबूजी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जलवायु बदलने के लिए जाना जरूरी है, नहीं तो कोई भयंकर रोग खड़ा हो जाएगा। कई बार वकील साहब से कह भी चुके हैं, पर वह यही कह दिया करते हैं कि मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ, मुझे कोई शिकायत नहीं। आज तुम कहना।

निर्मला—जब डॉक्टर साहब की नहीं सुनी तो मेरी सुनेंगे?

यह कहते-कहते निर्मला की आँखें डबडबा गईं और जो शंका, इधर महीनों से उसके हृदय को विकल करती रहती थी, मुँह से निकल पड़ी। अब तक उसने उस शंका को छिपाया था, पर अब न छिपा सकी। बोली-बहन मुझे लक्षण कुछ अच्छे नहीं मालूम होते। देखें, भगवान् क्या करते हैं?