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महीना कटते देर न लगी। विवाह का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा। मेहमानों से घर भर गया। मुंशी तोताराम एक दिन पहले आ गए और उनके साथ निर्मला की सहेली भी आई। निर्मला ने बहुत आग्रह न किया था, वह खुद आने को उत्सुक थी। निर्मला की सबसे बड़ी उत्कंठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करूँगी और हो सका तो उसकी सद्बुद्धि पर धन्यवाद दूँगी।

सुधा ने हँस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?

निर्मला-क्यों, बोलने में क्या हानि है? अब तो दूसरा ही संबंध हो गया और मैं न बोल सकूँगी तो तुम तो हो ही।

सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा। मैं पराए मर्द से नहीं बोल सकती। न जाने कैसे आदमी हों।

निर्मला-आदमी तो बुरे नहीं हैं और फिर उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहाँ होते तो मैं तुम्हें आज्ञा दिला देती।

सुधा–जो लोग हृदय के उदार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते हैं? पराई स्त्री को घूरने में तो किसी मर्द को संकोच नहीं होता।

निर्मला—अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूँगी। घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा। बस, अब तो राजी हुई। इतने में कृष्णा आकर बैठ गई। निर्मला ने मुसकराकर कहा-सच बता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?

कृष्णा-जीजाजी बुला रहे हैं, पहले जाकर सुन आओ। पीछे गप्पें लड़ाना। बहुत बिगड़ रहे हैं।

निर्मला—क्या है, तूने कुछ पूछा नहीं?

कृष्णा-कुछ बीमार-से मालूम होते हैं। बहुत दुबले हो गए हैं।

निर्मला-तो जरा बैठकर उनका मन बहला देती। यहाँ दौड़ी क्यों चली आई? यह कहो, ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुष तुझे भी मिलता। जरा बैठकर बातें करो। बुड्ढे की बातें बड़ी लच्छेदार करते हैं। जवान इतने डींगियल नहीं होते।

कृष्णा-नहीं बहन, तुम जाओ, मुझसे तो वहाँ बैठा नहीं जाता।

निर्मला चली गई तो सुधा ने कृष्णा से कहा-अब तो बारात आ गई होगी। वार-पूजा क्यों नही होती?

कृष्णा-क्या जाने बहन, शास्त्रीजी सामान इकट्ठा कर रहे हैं?

सुधा-सुना है, दूल्हे की भावज बड़े कड़े स्वभाव की स्त्री है।

कृष्णा-कैसे मालूम?

सुधा–मैंने सुना है, इसीलिए चेताए देती हूँ। चार बातें गम खाकर रहना होगा।

कृष्णा—मेरी झगड़ने की आदत नहीं। जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पाएँगी तो क्या अनायास ही बिगड़ेंगी!

सुधा–हाँ, सुना तो ऐसा ही है। झूठ-मूठ लड़ा करती है।

कृष्णा-मैं तो सौ बात की एक बात जानती हूँ। नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है।

सहसा शोर मचा-बारात आ रही है। दोनों रमणियाँ खिड़की के सामने आ बैठीं। एक क्षण में निर्मला भी आ पहुँची। वर के बड़े भाई को देखने की उसे बड़ी उत्सुकता हो रही थी।

सुधा ने कहा—कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?

निर्मला-शास्त्रीजी से पूछूँ तो मालूम हो। हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं। अच्छा डॉक्टर साहब यहाँ कैसे आ पहुँचे! वह घोड़े पर क्या हैं, देखती नहीं हो?

सुधा–हाँ, हैं तो वही।