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योंतो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे। कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भानजा था, कोई भतीजा, लेकिन यहाँ हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं। वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुंब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कर्तव्य ही था। हमारा संबंध तो केवल उनकी दोनों कन्याओं से है, जिनमें बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुडिया खेलती थीं। निर्मला का पंद्रहवाँ साल था, कृष्णा का दसवाँ, फिर भी उनके स्वभाव में कोई विशेष अंतर न था। दोनों चंचल, खिलाडिन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुडिया का धूमधाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं। माँ पुकारती रहती थी, पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिए बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डाँटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं, पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी-को-बड़ी और छोटी-को-छोटी बना दिया है। कृष्णा वही है, पर निर्मला बड़ी गंभीर, एकांतप्रिय और लज्जाशील हो गई है।

इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचंद्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवन मोहन सिन्हा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आपकी खुशी है कि दहेज दें या न दें, मुझे इसकी परवाह नहीं। हाँ, बारात में जो लोग जाएँ, उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चहिए, जिसमें मेरी और आपकी जग-हँसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील, पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी, इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानो उन्हें आँखें मिल गई। डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दोतीन महाजनों को ठीक कर रखा था। उनका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे। यह आश्वासन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाए।

इसकी सूचना ने अज्ञान बलिका को मुँह ढाँपकर एक कोने में बिठा रखा है। उसके हृदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रोम-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है, न जाने क्या होगा। उसके मन में वे उमंगें नहीं हैं, जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बनकर, ओठों पर मधुर हास्य बनकर और अंगों में लास्य बनकर प्रकट होती हैं। नहीं, वहाँ अभिलाषाएँ नहीं हैं, वहाँ केवल शंकाएँ, चिंताएँ और भीरु कल्पनाएँ हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है।

कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, दवार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आएँगे, नाच होगा—यह जानकर प्रसन्न है और यह भी जानती है कि बहन सबके गले मिलकर रोएगी। यहाँ से रो-धोकर विदा हो जाएगी। मैं अकेली रह जाऊँगी यह जानकर दुःखी है, पर यह नहीं जानती कि यह किसलिए हो रहा है, माताजी और पिताजी क्यों बहन को इस घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की, क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊँगी और किसी को मुझ पर दया न आएगी? इसलिए वह भयभीत भी हैं। संध्या का समय था, निर्मला छत पर जाकर अकेली बैठी आकाश की ओर तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता था कि पंख होते तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती तो बगीचे में ही टहला करतीं, इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी।