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नैषध-चरित-चर्चा

विखम्बसे जीवित ! किं, द्रव द्रुतं
ज्वलत्यवस्ते हृदयं निकेतनम् *
जहासि नाद्यापि मृषासुखासिका-
मपूर्वमानस्यमहो तवेद्दशम् ।

(सर्ग ९, श्लोक ९०)
 

भावार्थ—हे जीवित ! तू देरी क्यों कर रहा है ? क्यों नहीं झटपट निकल खड़ा होता ? क्या तुझको सूझ नहीं पड़ता कि तेरा घर, अर्थात् मेरा हृदय, जहाँ तू बैठा है, जल रहा है ? तेरा आलस्य देखकर आश्चर्य होता है । क्या अब तक तुझको सुख की आशा बनी हुई है ? जब घर में आग लगती है, तब उसमें कोई नहीं रहता; शीघ्र ही बाहर निकल आता है— यह भाव।


  • जान पड़ता है कि फारसी के कवि ग़ाफ़िज के समान दमयंती

को भी यह ज्ञान न था कि इसी हृदय में मेरे प्रियतम का वास है। यदि ऐसा न होता, तो वह उसे जलने क्यों देती ? ग़ाफ़िल ने कहा है—

दिन रा अबस बरकत जानाना सोख्तेम;
ग़ाफ़िल कि ऊ बखाना व माः खाना सोख़्तेम।

अर्थात्प्रि—प्रियतम के वियोग में हमने अपने हृदय को वृथा जलाया। हम यह न जानते थे कि इसी हृदयरूपी घर में उसका निवास है। हा ! जिस घर में वह था, उसी को हमने जला दिया?

कवि का आशय यहाँ ईश्वर से है, तथापि किसी भी प्रेमी के विषय में ऐसी उक्ति घटित हो सकती है।