पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११०
नैषध-चरित-चर्चा

क याचतां कल्पलतासि मां प्रति
क दृष्टिदाने तव बद्धमुष्टिता ।

(सर्ग ९, श्लोक १०९)
 

भावार्थ—मेरा और अधिक गौरव कर अथवा न कर; इस विषय में मैं कुछ नहीं कहता; परंतु मेरे प्रणाम-मात्र का अंगीकार करने में कौनं बड़ा परिश्रम है ? याचकों के लिये तो तू कल्पलता हो रही है; परंतु मेरे लिये इतनी बद्धमुष्टिता कि दृष्टि-दान तक नहीं देती—एक बार मेरी ओर देखती भी नहीं !

समापय प्रावृषमश्रुविप्रुषां
स्मितेन विवाश्रय कौमुदीमुदः;
दृशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी
विकाशि पंकेरुहमस्तु ते मुखम् ।

(सर्ग ९, श्लोक ११२)
 

भावार्थ—अश्रु बरसाना बंद कर; मंद मुसकान से चंद्र की भी चंद्रिका को प्रसन्न कर; नेत्र-रूपी खंजनयुग्म को देखने दे; कमल के समान मुख को प्रफुल्लित कर ।

गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनैः
प्रसीद शुश्रूषयितुं मया कुचौ ;
निशेव चान्द्रस्य करोस्करस्य य-
मम स्वमेकासि नलस्य जीवितम् ।

(सर्ग ९, श्लोक ११९)