पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०९
श्रीहर्ष की कविता के नमूने

पुरस्त्वयालोकि नमञ्चयन कि
तिरश्चललोचनलीलया नलः ?

(सर्ग ९, श्लोक १०३)
 

भावार्थ—हे प्रिये ! किसके लिये तू इतना विलाप कर रही है ? हाय-हाय ! क्यों तू अश्रुओं से अपने मुख को भिगो रही है ? यह नल, तेरे सम्मुख हो तो, तिर्यक दृष्टि किए हुए नम्रता-पूर्वक खड़ा है । क्या तूने उसे नहीं देखा?

मम स्वदच्छामिनखामृतद्युतेः
किरीटमाणिक्यमयूखमञ्जरी।
उपासनामस्य करोतु रोहिणी
त्यज त्यनाकारणरोषणे ! रुषम् ।

(सर्ग ९, श्लोक १०७)
 

भावार्थ—मेरी किरीट-मणि-मयूख-रूपी रोहिणी तेरे स्वच्छ पद-नख-रूपी चंद्रमा की उपासना करने के लिये प्रस्तुत है। अर्थात् मैं अपना सिर तेरे पैरों पर रखता हूँ। हे अकारण- कोपने ! कोप न कर, कोप न कर !

रोहिणी चंद्रमा की प्रिया है । अतएव उसके द्वारा चंद्रमा की उपासना होनी ही उचित है—यह इस श्लोक का तात्पर्य है।

प्रभुत्वभूनानुगृहाण वा न वा
प्रणाममानाधिगमेऽपि क: अमः !