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श्रीहर्ष नाम के तीन पुरुष

इससे हमारे साहित्य के गौरव की बड़ी हानि हुई है। कभी- कभी तो समय और प्रसंग जानने ही से परमानंद होता है। परंतु, खेद है, संस्कृत-भाषा के ग्रंथों की इस विषय में बड़ी ही दुरवस्था है। समय और प्रसंग का ज्ञान न होने से अनेक ग्रंथों का गुरुत्व कम हो गया है। इस अवस्था में भी, जब संस्कृत के विशेष-विशेष ग्रंथों की इतनी प्रशंसा हो रही है तब, किस समय, किसने, किस कारण, कौन ग्रंथ लिखा— इन सब बातों का यदि यथार्थ ज्ञान होता, तो उनकी महिमा और भी बढ़ जाती। जिस प्रकार वन में पड़ी हुई एक सौंदर्य- वती मत स्त्री के हाथ, पैर, मुख आदि अवयव-मात्र देख पड़ते हैं, परंतु यह पता नहीं चलता कि वह कहाँ की है, और किसकी है, वैसे ही इतिहास के विना हमारा संस्कृत-ग्रंथ-साहित्य लावारिस-सा हो रहा है। यही साहित्य यदि इतिहासरूपी आदर्श में रखकर देखने को मिलता, तो जो आनंद अभी मिलता है, उससे कई गुना अधिक मिलता। राजतरंगिणी, विक्रमांकदेव-चरित, कुमारपाल-चरित, प्रबंधकोश, पृथ्वीराज- विजय इत्यादि ग्रंथों का प्रसंगवशात् कभी-कभी कुछ उपयोग होता है, परंतु 'इतिहास' में इनकी गणना नहीं। इन्हें तो काव्य ही कहना चाहिए, क्योंकि देश-ज्ञान, काल-क्रम और सामाजिक वर्णन तथा राजनीतिक विवेचन, जो इतिहास के मूलाधार हैं, उनकी ओर इन ग्रंथों में विशेष ध्यान ही नहीं दिया गया।