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नैषध-चरित-चर्चा

संदृब्धार्णववर्णनस्य[१] नवमस्तस्य व्यरंसीन्महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वल:[२]

ये जो श्लोकार्द्ध हैं, इनसे जाना जाता है कि श्रीहर्ष ने 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति' और 'अर्णववर्णन' ये दो काव्य लिखे हैं। समुद्र-वर्णन और गोड़ेश्वर की प्रशस्ति-रचना से अनुमान होता है कि श्रीहर्ष कान्यकुब्ज-नरेश के यहाँ से गौड़ देश को गए होंगे। क्योंकि वहाँ गए बिना वहाँ के राजा तथा समुद्र का वर्णन युक्ति-संगत नहीं कहा जा सकता। गौड़ जाने ही पर समुद्र के दर्शन हुए होंगे और दर्शन होने ही पर उसका वर्णन लिखने की इच्छा श्रीहर्ष को हुई होगी। परंतु यह सब अनुमान-ही-अनुमान है। श्रीहर्ष गौड़ देश को गए हों या न गए हों, एक बात प्रायः निश्चित-सी है। वह यह कि नैषध के कर्ता श्रीहर्ष आदि-शूर के समय में नहीं हुए। वह उसके कोई २०० वर्ष बाद हुए हैं।

यदि यह मान लिया जाय कि गौड़ेश्वर के आश्रय में रहने ही के कारण श्रीहर्ष ने 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति' लिखी, तो यह हो


  1. अर्थात् 'अर्णववर्णन' नामक काव्य के कर्ता श्रीहर्ष-रचित नैषध-चरित का नवम सर्ग समाप्ति को पहुँचा।
  2. 'निसर्गोज्ज्वलः' (अत्यंत उज्ज्वल) यह श्रीहर्ष की तीसरी दर्पोक्ति हुई। 'चारुणि' और 'निसर्गोज्ज्वल:' की तो कुछ गिनती ही नहीं; न जाने कितनी दफ़े इनका प्रयोग आपने किया है।