कैसे सकता है । श्रीहर्ष तो कान्यकुब्ज-नरेश के आश्रय में थे। पर संभव है, गौड़-नरेश की प्रार्थना पर कान्यकुब्ज राजा की आज्ञा से वह वहाँ गए हों। अथवा कान्यकुब्ज राजा के मरने पर निराश्रय हो जाने के कारण वह गौड़ देश को चले गए हों। अथवा गौड़राज और कान्यकुब्जेश्वर में परस्पर मित्रता रही हो। इस दशा में अपने आश्रयदाता के मित्र का वर्णन करना श्रीहर्ष के लिये अनुचित नहीं कहा जा सकता।
नैषध-चरित के अंतिम सर्ग के श्लोक १५१ का उत्तरार्द्ध यह है—
द्वार्विशो नव (नृप) साहसाङ्कचरिते चम्पकृतोऽयं महा-
काव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गो निसर्गेज्ज्विलः ।
जिससे ज्ञात होता है कि श्रीहर्ष ने 'साहसांक-चंपू' भी बनाया है । टीकाकार नारायण पंडित इस श्लोक की टीका में लिखते हैं—
नृपसाहसाङ्कति पाठे नृपश्चासौ साहसाङ्कश्च तस्य गौडेन्द्रस्य चरिते विषये।
जिससे यह सूचित होता है कि साहसांक गौड़ देश का राजा था। डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र ने इस राजा के नाम का उल्लेख अपनी 'इंडू-एरियन'-पुस्तक में कहीं नहीं किया, जिससे नारा- यण पंडित का कथन पुष्ट नहीं होता । हरिमोहन प्रमाणिक इत्यादि विद्वान् साहसांक को कान्यकुब्ज का राजा बतलाते हैं और उसका होना ९०० ईसवी के लगभग लिखते हैं ।