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श्रीहर्ष का समयादि-निरूपण

तस्मादद्भुतविक्रमादथ जयचन्द्राभिधानः पति-
र्भूपानामवतीर्ण एष भवनोद्धाराय नारायणः ।
द्वैधीभावमपास्य विग्रहरुचिं धिक्कृत्य शान्ताशयाः
सेवन्ते यमुदप्रबन्धनभयध्वंसार्थिनः पार्थिवाः ॥३॥

राजशेखर सूरि ने १३४८ ईसवी में प्रबंधकोश-नामक ग्रंथ लिखा है। उसमें उसने श्रीहीर, श्रीहर्ष और जयचंद इत्यादि के विषय में जो कुछ कहा है, वह संक्षेपतः यह है—

काशी में गोविंदचंद्र नाम का एक राजा था। उसके पुत्र का नाम जयचंद्र था । (दानपत्रों के अनुसार गोविंदचंद्र का पुत्र विजयचंद्र और विजयचंद्र का पुत्र जयचंद्र था) उसको, अर्थात् जयचंद्र की, सभा में हीर नाम का एक विद्वान् था । उसको सभा में, राजा के सम्मुख, एक दूसरे विद्वान् ने— उदयनाचार्य ने—शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया। हीर जब मरने लगा, तब उसने अपने पुत्र श्रीहर्ष से कहा कि यदि तू सत्पुत्र है, तो जिस पंडित ने मुझे परास्त किया है, उसे तू राजा के सम्मुख अवश्य परास्त करना । श्रीहर्ष ने कहा— 'बहुत अच्छा'।

पिता के मरने पर श्रीहर्ष ने देश-देशांतरों में जाकर तर्क, व्याकरण, वेदांत, गणित, ज्योतिष, अलंकार इत्यादि अनेक शास्त्र पढ़े। फिर गंगा-तट पर एक वर्ष-पर्यत चिंतामणि-मंत्र की साधना करके उन्होंने भगवती त्रिपुरा से वर प्राप्त किया। इस वर के प्रभाव से श्रीहर्ष को वाणी में ऐसी अलौकिक