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नैषध-चरित-चर्चा

शक्ति प्रादुर्भूत हुई कि जिस सभा में वह जाते, कोई उनको बात ही न समझ सकता । अतः श्रोहर्ष ने पुनः त्रिपुरा को प्रत्यक्ष करके उनसे प्रार्थना की कि ऐसा कीजिए, जिसमें सब कोई मेरी बात समझ सकें । इस पर देवो ने कहा—"आधी रात के समय, भीगे सिर, दही खाकर शयन कर । कफांश के उतरने से तेरी बुद्धि में कुछ जड़ता आ जायगी ।" श्रीहर्ष ने ऐसा ही किया। तब से उनकी बातें लोगों की समझ में आने लगीं।

इस प्रकार, वर-प्राप्ति के अनंतर, काशी में राजा जयचंद्र से श्रीहर्ष मिले । उन्होंने उसे अपनी विद्वत्ता से बहुत प्रसन्न किया । राजा के सम्मुख उपस्थित होने पर श्रीहर्ष ने यह श्लोक पढ़ा—

गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च
माऽस्मिन्नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः;
अस्वीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री-
रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्रीः ।

भावार्थ—हे तरुणी-गण ! गोविदनंदन (गोविंदचंद्र का लड़का जयचंद्र तथा गो वद [कृष्ण] का लड़का प्रद्युम्न अर्थात् काम,) तथा अत्यंत रूपवान होने के कारण इस राजा को तुम लोग कहीं काम न समझ लेना। इस जगत को जीतने में काम स्त्री को अस्त्री (पुरुष तथा अस्त्रधारी) कर देता है, अर्थात् स्त्रियों ही को अस्त्र-रूप करके जगत् जीत लेता है; परंतु