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श्रीहर्ष का समयादि-निरूपण

श्रीहर्ष काशी लौट आए, और जयचंद्र से उन्होंने सब हाल कहा । राजा बहुत प्रसन्न हुआ।

वीरधवल-नामक राजा के समय में हरिहर-नामक पंडित नैषध की एक प्रति गुजरात को ले गया। उस पुस्तक से राजा वीरधवल के मंत्री वस्तुपाल ने एक दूसरी प्रति लिखवाई। राजशेखर ने लिखा है कि हरिहर श्रीहर्ष के वंशज थे और वे गौड़ थे। अतः श्रीहर्ष भी गौड़ ही हुए। संभव है, इसी से श्रीहर्ष ने गौड़-देश के राजा को प्रशंसा में 'गौडोर्वीशकुल- प्रशस्ति' नामक ग्रंथ बनाया हो।

राजशेखर ने लिखा है कि जयचंद्र की रानी सूहलदेवी बड़ी विदुषी थी। वह कलाभारती नाम से प्रसिद्ध थी। श्रीहर्ष भी नरभारती कहलाते थे। यह बात रानी को सहन न होती थी। वह श्रीहर्ष से मत्सर रखती और कुचेष्टाएँ किया करती थी। इसीलिये, खिन्न होकर, गंगा-तट पर श्रीहर्ष ने संन्यास ले लिया।

श्रीहर्ष ने अपने लिये कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ आसन पाना लिखा है, और राजशेखर ने (श्रीहर्ष के डेढ़ ही सौ वर्ष पोछे) उनको जयचंद्र का आश्रित बतलाया है। अतः यह बात निर्भम-सी है कि श्रीहर्ष जयचंद्र ही के समय, अर्थात् ईसा की बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, विद्यमान थे।

अहमदाबाद के निकट धोलका में चांडु नाम का एक विद्वान् हो गया है । उसने १२९६ ईसवी में नैषध-दीपिका-नामक नैषध-