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नैषध-चरित-चर्चा

करके उसे राजा को दिखाया। राजा ने उसे बहुत पसंद किया, और श्रीहर्ष से कहा कि तुम काश्मीर जाकर इसे वहाँ की राज-सभा के पंडितों को दिखा लाओ। श्रीहर्ष काश्मीर गए । पर वहाँ उनकी दाल न गली । वहाँ के ईर्ष्यालु पंडितों ने उनकी एक न सुनी । एक दिन श्रीहर्ष एक देवालय में पूजा कर रहे थे। पास हो तालाब था। इतने में नीच जाति की दो स्त्रियाँ वहाँ पानी भरने आईं। उनमें परस्पर मार-पीट हो गई । खून तक निकला। इसको फरियाद राजा के दरबार में हुई । राजा ने साक्षी माँगे। मार-पीट के समय वहाँ पर श्रीहर्ष के सिवा और कोई न था। अतएव वही गवाह बदे गए । श्रीहर्ष ने, बुलाए जाने पर, कहा कि मैं इन स्त्रियों की भाषा नहीं समझता। पर जो शब्द इन्होंने उस समय कहे थे, मुझे याद हैं। उन शब्दों को श्रीहर्ष ने ज्यों-का-त्यों कह सुनाया । उनकी ऐसी अद्भुत धारणा-शक्ति देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने इनसे इनका हाल पूछा। इनके पांडिस्य और कवित्व की उसने परीक्षा भी ली। इनका नैषध-चरित भी देखा । फल यह हुआ कि इनका बहुत सरकार उसने किया, और अपनी सभा के ईर्ष्यालु पंडितों को बहुत धिक्कारा। राजा ने तथा उसके आश्रित पंडितों ने भी नैषध- चरित के सरकाव्य होने का सरटीफिकट श्रीहर्ष को दे दिया।

जिस समय श्रीहर्ष काश्मीर गए, उस समय के काश्मीर-नरेश का नाम राजशेखर ने माधवदेव लिखा है । परंतु राजतरंगिणी में इस नाम के राजा का उल्लेख नहीं।