तरह मुझमें मन लगाकर जो मनुष्य मेरे मंत्र का जप करता है, उसकी तो कोई बात ही नही; एक वर्ष के अनंतर वह और जिस किसी के ऊपर अपना हाथ रख देता है, वह भी सहसा सैकड़ों हृदयहारी श्लोक बनाने लगता है। मेरे इस मंत्र का कौतुक देखने योग्य है।
चतुर्दश सर्ग में नल को सरस्वती ने जिस समय वर-प्रदान किया है, उस समय के ये तीनो श्लोक हैं। श्रीहर्ष ने सरस्वती ही के मुख से ये श्लोक कहलाए हैं।
इस मंत्र की साधना से सचमुच ही इतनी सिद्धि प्राप्त होती है, इसके उदाहरण वर्तमान समय में तो सुनने में नहीं आए। पर श्रीहर्ष की बात पर सहसा अविश्वास करने को भी जी नहीं चाहता। हम एक ऐसे आदमी को जानते हैं, जिसकी जीभ पर, जात-कर्म-संस्कार के समय, सरस्वती का पूर्वोक्त मंत्र (ॐ ह्वी ॐ) लिख दिया गया था। यह मनुष्य कुछ पढ़-लिख भी गया, और कुछ कीर्ति-संपादन भी उसने किया। पर यह इसी मंत्र का प्रभाव था या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। संभव है, यथाशास्त्र और यथारीति इसकी उपासना करने से विशेष फल होता हो।
परंतु, आश्चर्य है, इसी चिंतामणि-मंत्र की उपासना करने पर भी हमारे एक मित्र को कुछ भी लाभ न हुआ। वह ग्वालि- यर में रहते हैं और रामानुज-संप्रदाय के वैष्णव हैं। आप बड़े पंडित और बड़े तांत्रिक हैं।