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पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/५५

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नैषध चरित-चर्चा

जगन्नाथराय ने कहा है कि सुमेरु से लेकर कन्याकुमारी तक मेरे बराबर अच्छी कविता करनेवाला दूसरा नहीं है । परंतु श्रीहर्ष केवल कविता ही से अमृत नहीं बरसाते, किंतु सारे शास्त्रों में अपने धुरीणत्व का उल्लेख करते हैं। इनके खंडन- खंड-खाद्य और नैषध-चरित से, टीकाकार नारायण पंडित के कथनानुसार, इनका 'विद्वच्चक्रचूड़ामणि' होना सिद्ध है, यह हम मानते हैं । परंतु क्या मुख से कहने ही से पांडित्य प्रकट होता है ? कालिदास ने रघुवंश में लिखा है—

मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् ।
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुरिव वामनः ।

इस शालीनता-सूचक पद्य से क्या उन्होंने अपना पांडित्य कम कर दिया ? कदापि नहीं । इस प्रकार नम्रता-व्यंजक वाक्य कहने से विद्या को और भी विशेष शोभा होती है । किसी ने कहा है—

शीलभारवती विद्या भजते कामपि श्रियम् ;

परंतु कुछ कवियों और पंडितों ने अपनी प्रशंसा अपने ही मुँह से करने में जरा भी संकोच नहीं किया। भारत-चंपू के बनानेवाले अनंत-नामक कवि ने—

दिगन्तरलुठस्कोतिरनन्तकविकुञ्जर: ।

इत्यादि वाक्य कहकर अपने को अपने ही मुख से कविकंजर ठहराया है। श्रीहर्ष की बात तो कुछ पूछिए ही नहीं। अपनी कविता के विषय में 'महाकाव्य', 'निसर्गोज्ज्वल', 'चारु',