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श्रीहर्ष की गर्वोक्तियाँ

श्रीहर्ष को अपनी विद्वत्ता और कविता का अतिशय गर्व था। उनकी कई एक दर्पोक्तियाँ हम ऊपर लिख भी चुके हैं। नैषध के अंतिम श्लोक में आप अपने विषय में क्या कहते हैं, सो सुनिए—

ताम्बूलद्वयमासनच लभते यः कान्यकुब्जेश्वराद्
य: साक्षाकुरुते समाधिषु परं ब्रह्मप्रमोदार्णवम्,
यस्काव्यं मधुवर्षि धषितपरास्तषु यस्योक्तयः
श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् ।

(सर्ग २२, श्लोक ११५)

अर्थात् कान्यकुब्ज-नरेश के यहाँ जिसे दो पान—और पान ही नहीं, किंतु आसन भी जिसे मिलता है। समाधिस्थ होकर जो अनिर्वचनीय ब्रह्मा नंद का साक्षात्कार करता है। जिसका काव्य शहद के समान मीठा होता है। जिसकी तर्कशास्त्र-संबंधिनी उक्तियों को सुनकर प्रतिपक्षी तार्किक परास्त होकर कोसों भागते हैं—उस श्रीहर्ष-नामक कवि की यह कृति (नैषध-चरित) पुण्यवान पुरुषों को प्रमोद देनेवाली हो।

देखा, आप पंडित जगन्नाथराय से भी बढ़कर निकले ।