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नैषध-चरित का पद्यात्मक अनुवाद

ही उद्धत होता है अथवा नहीं, इसके विचार का भार हम पाठकों ही पर छोड़ते हैं।

नैषध के प्रथम सर्ग के एक और श्लोक का भी अनुवाद शिवसिंहसरोज में दिया हुआ है। वह श्लोक यह है—

सितांशुवर्णैर्वयतिस्म तद्गुणै-
महासिवेन्नः सहकृत्वरी बहुम् ;
दिगंगनांगाभरणं रणांगणे
यशःपटं तद्भटचातुरीतुरी।

(सर्ग १, श्लोक १२)
 

भावार्थ—राजा नल के चंद्रवत् शुभ्र गुणांछ से, कृपाण- रूपी वेमा+ के सहारे, रण-क्षेत्र में उसके सुभटों की चातुरीरूपी तुरी+ ने, दिगंगनाओं के पहनने के लिये, सैकड़ों गज लंबा यशोरूपी वस्त्र बुन डाला । दिग्विजयी होने से राजा नल का यश सर्वत्र फैल गया, यह भाव।

इस अर्थ को भाषांतरित करने के लिये गुमानी मिश्र ने यह कवित्त लिखा है—

संगर धरावें जाके रंग सो सुभट निज
चातुरी तुरी सौ जस पटनि बुनतु है;


  • सूत्र को भी गुण कहते हैं।

+ वेमा, कपड़ा बुनने में काम आता है—एक प्रकार का दंड।

  • तुरी, कड़े बालों की बनी हुई ब्रश के समान एक वस्तु है।

उसका उपयोग जुलाहे लोग कपड़ा बुनने के समय करते हैं।