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श्रीहर्ष की कविता

श्रीहर्ष को अद्भुत कवित्व-शक्ति प्राप्त थी; इसमें कोई संदेह नहीं । परंतु उन्होंने नैषध-चरित में अपनी सहृदयता का विशेष परिचय नहीं लिया। उनका काव्य आदि से लेकर अंत तक विलक्षण अत्युक्तियों और दुरूह कल्पनाओं से जटिल हो रहा है। जिस स्थल में, जिसके विषय में, जिस-जिस क्लिष्ट कल्पना का उन्होंने प्रयोग किया है, उस स्थल में, उस-उस कल्पना का मन में उत्थान होना कभी-कभी असंभव-सा जान पड़ता है। फिर, आपकी कविता ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी है कि उसका भाव सहज ही ध्यान में नहीं आता । कहीं-कहीं तो आपके पद्यों का अर्थ बहुत ही दुर्बोध्य* है । हमारा


  • देखिए, दमयंती से राजा नल अंधकार का वर्णन करते हैं—

ध्वान्तस्य वामोरु ! विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे;
औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत् क्षम तमस्तत्वनिरूपणाय ।

(सर्ग २२, श्लोक ३६)
 

इसकी टीका नारायण पंडित ने कोई दो पृष्ठों में की है। जो 'वैशेषिक दर्शन' के कर्ता के नामादि से परिचित हो, वही अच्छी तरह इसके आशय को समझ सकता है।