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श्रीहर्ष की कविता

यह अभिप्राय नहीं कि इन कारणों से श्रीहर्षजी का काव्य हेय हो गया है। नहीं, इन दोषों के रहते भी, वह अनेक स्थलों में इतना रम्य और इतना मनोहर है कि किसी-किसी पद्य का अनेक बार मनन करने पर भी फिर-फिर उसे पढ़ने की इच्छा बनी ही रहती है। कोई-कोई स्थल तो इतने कारु- णिक हैं कि वहाँ पर पाषाण के भी द्रवीभूत होने की संभावना है। तथापि, फिर भी यही कहना पड़ता है कि इनकी कविता में विशेष सारल्य नहीं । कहीं-कहीं, किसी-किसी स्थल में, सरलता हुई भी तो क्या ? सौ में दो-चार श्लोकों का काठिन्य वर्जित होना, होना नहीं कहा जा सकता । श्रीहर्षजी को अपनी विद्वत्ता प्रकट करने की जहाँ कहीं थोड़ी भी संधि मिली है, वहाँ उन्होंने उसे हाथ से नहीं जाने दिया यत्र-यत्र न्याय, सांख्य, योग और व्याकरण आदि तक के तत्त्व भर दिए है।

अतिशयोक्ति कहने में श्रीहर्ष का पहला नंबर है। इस विषय में कोई भी अन्य प्राचीन अथवा अर्वाचीन कवि आपकी बराबरी नहीं कर सकता । अतिशयाक्ति ही के नहीं, आप अनुप्रास के भी भारी भक्त थे। नैषध-चरित में अनुप्रासों का बहुत ही बाहुल्य है । इस कारण, इस काव्य को और भी अधिक काठिन्याप्राप्त हो गया है। अनुप्रासादि शब्दालंकारों से कुछ आनंद मिलता है, यह सत्य है ; परंतु सहृदयताव्यंजक और सरस स्वभावोक्तियों से जितना चित्त प्रसन्न और