ग्रन्थग्रन्थिरिह क्वचिरक्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया
प्राज्ञंमन्यमना हठेन पठिती माऽस्मिन्खलः खेलतु ।
श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादय-
त्वेतत्काव्यरसोर्मिमजनसुखव्यासजनं सज्जनः।
भावार्थ—पंडित होने का दर्प वहन करनेवाले दुःशील मनुष्य इस काव्य के मर्म को बलात् जानने के लिये चापल्य न कर सकें—इसीलिये मैंने, बुद्धिपुरःसर, कहीं-कहीं, इस ग्रंथ में ग्रंथियाँ लगा दी हैं । जो सज्जन श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक गुरु को प्रसन्न करके, उन गूढ़ ग्रंथियों को सुलझा लेंगे, वही इस काव्य के रस की लहरों में लहरा सकेंगे।
वाह ! इतना परिश्रम आपने दो-चार दुर्जनों को अपने काव्य-रस से वंचित रखने ही के लिये किया ! अस्तु । प्राचीन पंडितों के विषय में इस तरह की अधिक बातें लिखकर हम किसो को अप्रसन्न नहीं करना चाहते।
श्रीहर्षजी के ऊपर के श्लोक से यह ध्वनित होता है कि प्रासादिक काव्य करने की भी शक्ति उनमें थी, परंतु जान-बूझ- कर उन्होंने नैषध-चरित में गाँठें लगाई हैं । लगाई तो हैं, किंतु 'कचित्-कचित्' लगाई हैं, सब कहीं नहीं । परंतु सारल्य 'कचित्-कचित्' ही देख पड़ेगा, गाँठे प्रायः सर्वत्र ही देख पड़ेंगी।
कालिदास के अनंतर जो कवि हुए हैं, उनके काव्यों की समालोचना करते समय जर्मनी के प्रोफ़ेसर वेबर ने तद्विषयक