चमत्कृत होता है, उतना इन बाह्याडंबरों से कदापि नहीं होता । तथापि अनुप्रास और अर्थ-काठिन्य के पक्षपाती पंडितों ने "उदिते नैषधे काव्ये क माघः कच भारविः" कहकर किरात और शिशुपालवध से नैषध को श्रेष्ठत्व दे दिया है। अनुप्रास और अतिशयोक्ति आदि में उन काव्यों से नैषध को चाहे भले ही श्रेष्ठत्व प्राप्त हो, परंतु और बातों में नहीं प्राप्त हो सकता । स्वभावानुयायिनी और मनोहारिणी कविता ही यथार्थ कविता है। उसी से आत्मा तल्लीन और मन मुग्ध होता है। जिनको ईश्वर ने सहृदयता दी है और कालिदास के काव्यरस को आस्वादन करने की शक्ति भी दी है, वही इस बात को अच्छी तरह जान सकेंगे। कालिदास का काव्य साद्यंत "सर्वागीणरसामृतस्तिमितया वाचा"* से परिपूर्ण है। अस्वाभाविक वर्णन का कहीं नाम तक नहीं । समस्त काव्य सरस, सरल और नैसर्गिक है । हम नहीं जानते, देवप्रसाददत्त कवित्व-शक्ति पाकर भी श्रीहर्ष ने क्यों अपने काव्य को इतना दुरूह बनाया ? यदि पांडित्य प्रकट करने के लिये ही उन्होंने यह बात की तो पांडित्य उनका उनके और और ग्रंथों से प्रकट हो सकता था। काव्य का परमोत्तम गुण प्रसाद-गुण- संपन्नता है, उसी की अवहेलना करना उचित न था। नैषध के अंतिम सर्ग में श्रीहर्ष लिखते हैं—
- यह श्रीहर्ष हो की उक्ति है।