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नैषध-चरित-चर्चा

धिगीदृशन्ते नृपतेः कुविक्रमं
कृपाशये यः कृपणे पतत्रिणि।

(सर्ग १, श्लोक १३२)
 

भावार्थ—पद-पद पर, सभी कहीं, अनेक रणोन्मत्त सुभट भरे हुए हैं। क्या उनसे तेरी तृप्ति नहीं होती ? उनसे भिड़- कर क्यों नहीं तू अपनी हिंसावृत्ति की पूर्ति करता ? हमारे समान दोन, कृपापात्र पक्षियों के ऊपर तू अपना पराक्रम प्रकट . करता है ? तेरे इस कुविक्रम को धिक्कार है !

फलेन मूलेन च वारिभूरुहां
मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः;
त्वयाद्य तस्मिन्नपि दण्डधारिणा
कथं न पत्या धरणी हिणीयते ?

(सर्ग १, श्लोक १३३)
 

भावार्थ—मुनियों के सदृश फल-मूलादि से अपनी जीवन- वृत्ति को चरितार्थ करनेवाले मेरे ऊपर भी आज तूने दंड उठाया ! तू पृथ्वी का पति है । तुझे ऐसा नृशंस कर्म करते देख, उस पृथ्वी को भी क्यों नहीं जुगुप्सा उत्पन्न होती?

इस प्रकार नल को लज्जित करके हंस ब्रह्मा का उपालंभ करता है—

मदेकपुत्रा जननी जरातुरा
नवप्रसूतिर्वरटा तपस्विनी;