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पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/८२

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श्रीहर्ष की कविता के नमूने

गतिस्तयोरेष जनस्तमर्द्दय-
अहो विधे ! त्वां करुणा रुणद्धि न ।

(सर्ग १, श्लोक १३५)
 

भावार्थ-मैं अपनी वृद्ध माता का अकेला ही पुत्र हूँ। मेरी स्त्री अभी प्रसूता हुई है; उसकी और भी बुरी दशा है। उन दोनो की एकमात्र गति मैं ही हूँ। हे विधे ! मुझे इस प्रकार पीड़ा पहुँचाते क्या तुझे कुछ भी करुणा नहीं आती ?

यह पद्य अत्यंत सरस है; यह करुण-रस का आकर है। सुनते हैं, वर्तमान सेंधिया-नरेश के किसी पूर्वज ने किसी कर्म- चारी के मुख से इस श्लोक को सुनकर उसे कारागार-मुक्त कर दिया था। उस मनुष्य के कुटुंब की भी वही दशा थी, जो हंस के कुटुंब की थी। वह कुछ रुपया खा गया था और कारागार के भीतर, अपनी शोचनीय स्थिति का स्मरण कर-करके, इसी श्लोक को वारंवार सुस्वर गाता था। सेंधिया ने उसके मुख से अनायास यह पद्य सुनकर उससे इसका अर्थ पूछा और हंस की तथा उसकी दोनो की समता देख, और उसके गाने के लय से प्रसन्न होकर, उसका अपराध क्षमा कर दिया । यही नहीं, उसे खिलत भी दी।

चंद्रमा में जो कालिमा देख पड़ती है, उस पर श्रीहर्षजी की उत्प्रेक्षा सुनिए—