सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९५
श्रीहर्ष की कविता के नमूने

आपकी ओर कर दिया, वह यद्यपि आपके योग्य नहीं है, तथापि उसको—आप और ही कहीं जाने की इच्छा भले ही क्यों न रखते हों—क्षण-भर के लिये तो अलंकृत कीजिए।

निवेद्यतां हन्त समापयन्तौ
शिरीषकोषनदिमाभिमानम् ;
पादौ कियदूरमिमौ प्रयासे
निधित्सते तुच्छदयं मनस्ते।

(सर्ग ८, श्लोक २४)
 

भावार्थ—कहिए तो सही, शिरीष की कलियों की कोमलता के भी अभिमान को हरण करनेवाले, अत्यंत कोमल, इस चरणद्वय को आपका नित्य मन और कहाँ तक कष्ट देना चाहता है ? अर्थात् बैठ जाइए।

अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य
वसन्तमुक्तस्य दशा वनस्य ;
त्वदास्यसंकेततया कृतार्था
श्रव्यापिनानेन जनेन संज्ञा।

(सर्ग ८, श्लोक २५)
 

भावार्थ—वसंत के चले जाने से वन की जो दशा होती है, अर्थात् वन जैसे शोभा-हीन दशा को पहुँच जाता है, उस दशा में आपने किस देश को परिणत कर दिया (आपका आगमन कहाँ से हुआ, यह भाव)। आप अपने मुख से अपने नाम का संकेत करके उसे कृतार्थ कीजिए ; मैं भी तो उसे सुन लूँ।