पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९६
नैषध-चरित-चर्चा

इसके अनंतर दमयंती ने नल के सौंदर्यादि का एक लंबा- चौड़ा वर्णन नल ही के सम्मुख किया है । दमयंती कहती है—

मही कृतार्था यदि मानवोऽसि
जितं दिवा यद्यमरेषु कोऽपि ;
कुलं स्वयालङ्कृतमौरगन्चे-
बाधोऽपि फस्योपरि नागलोकः ।

(सर्ग ८, श्लोक ४४)
 

भावार्थ—यदि आप मनुष्य हैं, तो पृथ्वी कृतार्थ है ; यदि आप देवता हैं, तो देवलोक धन्य है ; यदि आपने नाग-कुल को अलंकृत किया है तो, नीचे होकर भी, नाग-लाक किसके ऊपर नहीं ? अर्थात् आपके जन्म से वह सर्वोच्च पदवी को पहुँच गया।

इयत्कृतं केन महीजगत्या-
महो महीयः सुकृतं जनेन;
पादौ यमुद्दिश्य तवापि पद्या-
रजःसु पद्मस्रजमारभते ।

(सर्ग ८, श्लोक ४७)
 

भावार्थ—इस महीतल में इतना अधिक पुण्य किसने किया है, जिसके उद्देश से आपके भी पद गलियों की धूल में कमल की-सी माला बिछाते चले जाते हैं।

ब्रवीति में किं किमियं न जाने
सन्देहदोलामवलम्ब्य संवित् ;