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मित्रसम्प्राप्ति]
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उसने अपने साथियों को कहा—"व्याध तो लौट गया। अब चिन्ता की कोई बात नहीं। चलो, हम महिलारोप्य शहर के पूर्वोत्तर भाग की ओर चलें। वहाँ मेरा घनिष्ट मित्र हिरण्यक नाम का चूहा रहता है। उससे हम अपने जाल को कटवा लेंगे। तभी हम आकाश में स्वच्छन्द घूम सकेंगे।

वहाँ हिरण्यक नाम का चूहा अपनी १०० बिलों वाले दुर्ग में रहता था। इसीलिये उसे डर नहीं लगता था। चित्रग्रीव ने उसके द्वार पर पहुंच कर आवाज़ लगाई। वह बोला—"मित्र हिरण्यक! शीघ्र आओ। मुझ पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है।"

उसकी आवाज़ सुनकर हिरण्यक ने अपने ही बिल में छिपे-छिपे प्रश्न किया—"तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? क्या प्रयोजन है?......"

चित्रग्रीव ने कहा—"मैं चित्रग्रीव नाम का कपोतराज हूँ। तुम्हारा मित्र हूँ। तुम जल्दी बाहर आओ; मुझे तुम से विशेष काम है।"

यह सुनकर हिरण्यक चूहा अपने बिल से बाहिर आया। वहाँ अपने परममित्र चित्रग्रीव को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। किन्तु चित्रग्रीव को अपने साथियों समेत जाल में फँसा देखकर वह चिन्तित भी हो गया। उसने पूछा—"मित्र! यह क्या होगया तुम्हें?" चित्रग्रीव ने कहा—"जीभ के लालच से हम जाल में फँस गये। तुम हमें जाल से मुक्त कर दो।"

हिरण्यक जब चित्रग्रीव के जाल का धागा काटने लगा तब