पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
११२]
[पञ्चतन्त्र
 

मिला है। कई बार बिना विशेष उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है। इसे पूर्वजन्मों का फल ही कहना चाहिए।"

यह सोचकर वह मृत लाशों पास जाकर पहले छोटी चीज़ें खाने लगा। उसे याद आगया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिये; इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है। इस तरह अल्प से अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है। अतः इनका भोग मैं इस रीति से करूँगा कि बहुत दिन तक इनके उपभोग से ही मेरी प्राणयात्रा चलती रहे।

यह सोचकर उसने निश्चय किया कि वह पहले धनुष की डोरी को खायगा। उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बँधी हुई थी। गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया। चबाते ही वह डोरी बहुत वेग से टूट गई; और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेद कर ऊपर निकल आया, मानो माथे पर शिखा निकल आई हो। इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वहीं मर गया।

ब्राह्मण ने कहा—"इसीलिये मैं कहता हूँ कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है।"

ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा—"यदि यही बात है तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं। उनका शोधन करके कूट छाँटकर अतिथि को खिला देती हूँ।"

ब्राह्मण उसकी बात से सन्तुष्ट होकर भिक्षा के लिये दूसरे