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मित्रसम्प्राप्ति]
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गाँव की ओर चल दिया। ब्राह्मणी ने भी अपने वचनानुसार घर में पड़े तिलों को छाँटना शुरू कर दिया। छाँट-पछोड़ कर जब उसने तिलों को सुखाने के लिये धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तिलों को मूत्र-विष्ठा से खराब कर दिया। ब्राह्मणी बड़ी चिन्ता में पड़ गई। यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसने अतिथि को भोजन देना था। बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल माँगेगी तो कोई भी दे देगा। इनके उच्छिष्ट होने का किसी को पता ही नहीं लगेगा। यह सोचकर वह उन तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने लगी और कहने लगी—"कोई इन छँटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छँटे तिल देदे।"

अचानक यह हुआ कि जिस घर में मैं भिक्षा के लिये गया था उसी घर में वह भी तिलों को बेचने पहुँच गई, और कहने लगी कि—"बिना छँटे हुए तिलों के स्थान पर छँटे हुए तिलों को ले लो।" उस घर की गृहपत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी तब उसके लड़के ने, जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा—

"माता! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छँटे तिलों को लेकर छँटे हुए तिल देगा। यह बात निष्कारण नहीं हो सकती। अवश्यमेव इन छँटे तिलों में कोई दोष होगा।"

पुत्र के कहने से माता ने यह सौदा नहीं किया।

यह कहानी सुनाने के बाद बृहत्स्फिक ने ताम्रचूड़ से पूछा—