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१६८] [पञ्चतन्त्र

"महाराज! जय हो। आप की कृपा से ही संसार के सब सुख हैं।" दूसरी कहती थी—"महाराज! ईश्वर आप के कर्मों का फल दे।" दूसरी के वचन को सुनकर महाराज क्रोधित हो जाता था। एक दिन इसी क्रोधावेश में उसने मन्त्री को बुलाकर आज्ञा दी—"मन्त्री! इस कटु बोलने वाली लड़की को किसी ग़रीब परदेसी के हाथों में दे दो, जिससे यह अपने कर्मों का फल स्वयं चखे।"

मन्त्रियों ने राजाज्ञा से उस लड़की का विवाह मन्दिर में सामान्य भिखारी की तरह ठहरे परदेसी राजपुत्र के साथ कर दिया। राजकुमारी ने उसे ही अपना पति मानकर सेवा की। दोनों ने उस देश को छोड़ दिया।

थोड़ी दूर जाने पर वे एक तालाब के किनारे ठहरे। वहाँ राजपुत्र को छोड़कर उसकी पत्नी पास के गाँव से धी-तेल-अन्न आदि सौदा लेने गई। सौदा लेकर जब वह वापिस आ रही थी, तब उसने देखा कि उसका पति तालाब से कुछ दूरी पर एक साँप के बिल के पास सो रहा है। उसके मुख से एक फनियल साँप बाहर निकलकर हवा खा रहा था। एक दूसरा साँप भी अपने बिल से निकल कर फन फैलाये वहीं बैठा था। दोनों में बातचीत हो रही थी।

बिल वाला साँप पेट वाले साँप से कह रहा था—"दुष्ट! तू इतने सर्वांग सुन्दर राजकुमार का जीवन क्यों नष्ट कर रहा है?"

पेट वाला साँप बोला—"तू भी तो इस बिल में पड़े स्वर्ण—