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१७६] [पञ्चतन्त्र

कि कहीं कोई आदमी पक्षी की विष्ठा के स्वर्णमय होने की बात राजा को बता देगा तो उसे राजा के सम्मुख दरबार में पेश होना पड़ेगा। संभव है राजा उसे दण्ड भी दे। इस भय से उसने स्वयं राजा के सामने पक्षी को पेश कर दिया।

राजा ने पक्षी को पूरी सावधानी के साथ रखने की आज्ञा निकाल दी। किन्तु राजा के मन्त्री ने राजा को सलाह दी कि, "इस व्याध की मूर्खतापूर्ण बात पर विश्वास करके उपहास का पात्र न बनो। कभी कोई पक्षी भी स्वर्ण-मयी विष्टा दे सकता है? इसे छोड़ दीजिये।" राजा ने मन्त्री की सलाह मानकर उसे छोड़ दिया। जाते हुए वह राज्य के प्रवेश द्वार पर बैठकर फिर स्वर्णमयी विष्ठा कर गया; और जाते-जाते कहता गया:—

"पूर्वे तावदहं मूर्खो द्वितीयः पाशबन्धकः
ततो राजा च मन्त्री च सर्वे वै मूर्खमण्डलम्॥

अर्थात्, पहले तो मैं ही मूर्ख था, जिसने व्याध के सामने विष्ठा की; फिर व्याध ने मूर्खता दिखलाई जो व्यर्थ ही मुझे राजा के सामने ले गया; उसके बाद राजा और मन्त्री भी मूर्खों के सरताज निकले। इस राज्य में सब मूर्ख-मंडल ही एकत्र हुआ है।

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रक्ताक्ष द्वारा कहानी सुनने के बाद भी मन्त्रियों ने अपने मूर्खताभरे व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया। पहले की तरह ही वे स्थिरजीवी को अन्न-मांस खिला-पिला कर मोटा करते रहे।

रक्ताक्ष ने यह देख कर अपने पक्ष के साथियों से कहा कि