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काकोलूकीयम्] [१८५

यह सुन कर जलपाद ने उसे छोटे-छोटे मेंढकों को खाने की आज्ञा दे दी।

सांप ने कहा—"मेंढक महाराज! आपकी सेवा से पाये पुरस्कार को भोग कर ही मेरी तृप्ति होगी, यही ब्राह्मण का अभिशाप है। इसलिये आपकी आज्ञा से मैं बहुत उपकृत हुआ हूँ।" जलपाद सांप की बात से बहुत प्रसन्न हुआ।

थोड़ी देर बाद एक और काला सांप उधर से गुज़रा। उसने मेंढकों को सांप की सवारी करते देखा तो आश्चर्य में डूब गया। आश्चर्यान्वित होकर वह मन्दविष से बोला—"भाई! जो हमारा भोजन है, उसे ही तुम पीठ पर सवारी करा रहे हो। यह तो स्वभाव-विरुद्ध बात है। मन्दविष ने उत्तर दिया—"मित्र! यह बात मैं भी जानता हूँ, किन्तु समय की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।"

मन्दविष ने अनुकूल अवसर पाकर धीरे-धीरे सब मेंढकों को खा लिया। मेंढकों का वंशनाश ही हो गया।

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वायसराज मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को धन्यवाद देते हुए कहा—"मित्र, आप बड़े पुरुषार्थी और दूरदर्शी हैं। एक कार्य को प्रारंभ करके उसे अन्त तक निभाने की आपकी क्षमता अनुपम है। संसार में कई तरह के लोग हैं। नीचतम प्रवृत्ति के वे हैं जो विघ्न-भय से किसी भी कार्य का आरंभ नहीं करते, मध्यम वे हैं जो विघ्न-भय से हर काम को बीच में छोड़ देते हैं, किन्तु उत्कृष्ट