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१९०] [पञ्चतन्त्र


मगर-पत्नी बोली—"जो बन्दर इतने मीठे फल रोज़ खाता है उसका दिल भी कितना मीठा होगा! मैं चाहती हूँ कि तू उसका दिल मुझे ला दे। मैं उसे खाकर सदा के लिये तेरी बन जाऊँगी, और हम दोनों अनन्त काल तक यौवन का सुख भोगेंगे।"

मगर ने कहा—"ऐसा न कह प्रिये! अब तो वह मेरा धर्म-भाई बन चुका है। अब मैं उसकी हत्या नहीं कर सकता।"

मगर-पत्नी—"तुमने आज तक मेरा कहा नहीं मोड़ा था। आज यह नई बात कर रहे हो। मुझे सन्देह होता है कि वह बन्दर नहीं, बन्दरी होगी; तुम्हारा उससे लगाव हो गया होगा। तभी, तुम प्रतिदिन वहाँ जाते हो। मुझे यह बात पहले मालूम नहीं थी। अब मुझे पता लगा कि तुम किसी और के लिये लम्बे सांस लेते हो, कोई और ही तुम्हारे दिल की रानी बन चुकी है।"

मगरमच्छ ने पत्नी के पैर पकड़ लिये। उसे गोदी में उठा लिया और कहा—"मानिनि! मैं तेरा दास हूँ, तू मुझे प्राणों से भी प्रिय है, क्रोध न कर, तुझे अप्रसन्न करके मैं जीवित नहीं रहूँगा।"

मगर-पत्नी ने आँखों में आँसू भरकर कहा—"धूर्त्त! दिल में तो तेरे दूसरी ही बसी हुई है, और मुझे झूठी प्रेमलीला से ठगना चाहता है। तेरे दिल में अब मेरे लिये जगह ही कहाँ है? मुझ से प्रेम होता तो तू मेरे कथन को यों न ठुकरा देता। मैंने भी निश्चय कर लिया है कि जब तक तुम उस बन्दर का दिल लेकर मुझे नहीं खिलाओगे तब तक अनशन करूँगी, भूखी रहूँगी।"

पत्नी के आमरण अनशन की प्रतिज्ञा ने मगरमच्छ को